अकस्मात् अयाचित सुधियों की निधियाँ , जब खुशियों की झड़ियाँ बन जातीं हैं ,
स्मृती पटल पर अंकित सुनहरी लकीरें , तब दीपों की अवलियां बन जातीँ हैं |
अकस्मात् अयाचित सुधियों की निधियाँ , जब कण्ठरोधक फांस बन जातीं हैं ,
स्मृती पटल पर अंकित घाव की लकीरें , लहूलुहान हों नासूर बन जातीं हैं ।
सरहद पर एक पिता शहीद हुआ , एक बेटी फूट फूट कर रोई ,
कुछ आँखें नम हुईं , फिर सब भूल गए , मनो कुछ हुआ ही नहीं।
कल न सरहदें रहेंगी,न हम ।
न ये ज़मीं रहेगी, न हम ।
न खुदा के बन्दे रहेंगे, न खुदा ।
रहेगा बस एक अविरल ज़लज़ला ।
शायद तब और सिर्फ तब एक उम्मीद रहेगी।
उम्मीद एक सुकून की ,
उम्मीद इस धरती के जीने की ॥
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